देश की शिक्षा का आधार उस देश की मूल प्रकृति या संस्कृति होती है : देशराज शर्मा

भारत की मूल प्रकृति आध्यात्मिक है । इसलिए यहां पर जन्मे व्यक्ति में बचपन से ही दया, करुणा, ममता, आत्मीयता,सेवा आदि के भाव देखे जा सकते हैं  । शिक्षा का उद्देश्य मानव का सर्वांगीण विकास है । सही विकास तभी संभव है जब उस बालक या मनुष्य की प्रकृति से परिचय हो, यह विचार माननीय देशराज शर्मा जी-मंत्री विद्या भारती उत्तर क्षेत्र ने प्रांतीय योजना अनुसार ऑनलाइन संकुलश आचार्य प्रबोधन वर्ग (2 जून से 29 जून) में कहे साथ ही उन्होंने ये भी कहा कि मनोविज्ञान बालक की प्रकृति समझने में सहायता करता है । शिक्षा का सारा कार्य मन पर केंद्रित है,अतः मन के विकास पर बल दिया जाए । मन एकाग्र, शान्त , सकारात्मक विकार रहित ,बुद्धि के वश में हो इसके लिए योग, संगीत, ध्यान,सत्संग सहायक हो सकते हैं  ।

माननीय रवि कुमार-संगठन मंत्री विद्या भारती हरियाणा ने अपने उद्बोधन में कहा कि शिक्षा के तीन उद्देश्य है 1-सर्वांगीण विकास ।  2-समाज को सत्य-धर्म के मार्ग पर चलाना । 3-राष्ट्र का परम वैभव । भारत केंद्रित शिक्षा के लिए विद्वानों के गुरुत्वाकर्षण‌ का केंद्र भारत बने तथा इन विद्वानों का ध्रुवीकरण हो, एक दिशा में सोचें । शिक्षा का कार्य अंतः करण से संचालित होता है, शिक्षा का सारा कार्य मन पर केंद्रित है इसलिए मन का एकाग्र होना आवश्यक है । इसके लिए गीता अभ्यास और वैराग्य पर बल देती है एवं इसके अतिरिक्त संगीत, योग- प्राणायाम सशक्त साधन कहे गए हैं ।  मन शुद्ध, एकाग्र बनाने के लिए ध्यान, सेवा, सत्संग और आत्म चिंतन के उपयुक्त माध्यम हैं । मन से सूक्ष्म बुद्धि है, निश्चयात्मक हो,तेजस्वी हो, कुशाग्र हो, विवेकी हो वह उसमें  ग्रहण व धारणा शक्ति हो । चित्त मन की अवस्था है । चित्त पूर्वाग्रह रहित हो । चित्त परिष्कृत हो, इसका परिष्करण निष्काम कर्म से संभव है । शिक्षा की आवश्यकता ज्ञान परंपरा अखंड चलाए रखना । परंपरा को आगे बढ़ाने का कार्य शिक्षक और शिक्षार्थी दोनों  पर निर्भर है।  इसका माध्यम प्रवचन है । शिक्षक और शिक्षार्थी के मध्य संबंध पिता पुत्र का हो जो कि आत्मीय हो । नवीन ज्ञान के सर्जन से शिष्य प्राप्त ज्ञान को सवाया करके आगे दे । यह हमारी परंपरा है ।  शिष्य में पात्रता -सेवा, श्रद्धा, जिज्ञासा, अभ्यास वृत्ति हो । छात्र आचार्य परायण,आचार्य ज्ञान परायण, ज्ञान सेवा परायण हो ।

माननीय वासुदेव प्रजापति जी-सह सचिव विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान ने ‘ भारतीय शिक्षा दर्शन ‘ अपने विचार रखते हुए कहा कि भारत की मूल प्रकृति आध्यात्मिक है । हमारे यहां चिंतन के केंद्र में चेतन है जबकि पश्चिमी चिंतन भौतिकवादी होने से उसके चिंतन workout exercises for a total-body workout का केंद्र जड़ पदार्थ हैं । मूल स्वभाव नष्ट होने से राष्ट्र समाप्त होते हैं । हमने मौलिक सत्य पर चिंतन किया है शरीर में विद्यमान आत्मा अर्थात् शरीर को  जानने वाला मनुष्य अर्थात मैं कहां से आया हूं कहां जाऊंगा । मनीषियों ने पाया जागृत अवस्था में मैं और मेरा शरीर अलग और सुप्त अवस्था में मैं और मेरा शरीर इससे भिन्न होते हैं । परंतु  दोनों परिस्थितियों में दृष्टा अर्थात मैं समान रूप से एक  जैसा होता है, वही सत्य है । मैं अर्थात दृष्टा या ज्ञाता को जानना ही शिक्षा है ।

श्री हर्ष कुमार जी-क्षेत्रीय प्रशिक्षण प्रमुख एवं सेवा क्षेत्र प्रमुख ने तीन महत्वपूर्ण विषय 1.’आचार्य वृति है व्यवसाय नहीं’ 2. आचार्य की शैक्षिक दृष्टि  3. तनाव प्रबंधन पर अपना विषय रखा ।  ‘आचार्य वृति है व्यवसाय नहीं ‘ विषय पर उन्होंने कहा कि पहली शिक्षक मां है  । विद्यालय में आचार्य ।’ कष्ट सहने की आदत, सेवा भाव, गौरव का भाव कि बालक में अंतर्निहित ईश्वरत्व को प्रकट करने का अवसर मिला है । सकारात्मक आचरण, जिज्ञासा जागरण और समाधान के लिए स्वाध्याय । पढ़ाई गई विषय वस्तु को जीवन से जोड़ना । मां के समान बालक की चिंता । योजक, अन्वेषक,अन्वेक्षक, मनोवैज्ञानिक, स्वाभिमानी, ईश्वर पर विश्वास, नई शिक्षा नीति के आधार पर अद्यतन होना । आचार्य सामान्य व्यक्ति नहीं हो सकता, सामान्य व्यक्ति को शिक्षक नहीं बनाना चाहिए ।व्यक्तित्व ऊंचा हो । श्रद्धा व सम्मान बने और बढ़े । पाठ्यक्रम नहीं बच्चे को कवर करें । बच्चे को नाम से बुलाना, आत्मीयता से जुड़ना आदि ।

‘आचार्य की शैक्षिक दृष्टि’ पर उन्होंने बताया कि शिक्षक समय को देखकर परिवर्तन करता है । ज्ञान बालक के अंदर है । बालक कौन है ? हमारा देखने का दृष्टिकोण क्या है ? बालक कोरी स्लेट है इस दृष्टिकोण वाले परेशान हैं । बालक ईश्वर का रूप है । बालक को ईश्वरत्व या पूर्णत्व की  अनुभूति करवाना हमारा कार्य है । इससे स्वयं की गुणवत्ता भी बढ़ेगी, क्षमताएं भी विकसित होंगी । संतुष्टि और आनंद की अनुभूति होगी । सब बच्चों की क्षमता जानकर योजना करना । इससे मेथड बदलना पड़ेगा । अभिरुचि और कार्य एक होने पर क्षमताओं का अधिक उपयोग होता है । आयु के अनुसार बालकों से व्यवहार करना । बालक के गुणों की चर्चा सर्वत्र करना । भूल मानना व  प्रायश्चित करना यही ईश्वरत्व है । नई परिस्थिति में तकनीकी ज्ञान  युक्त होना आवश्यक है । बालक को तैयार करने के लिए राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अनुसार अपनी तैयारी करना । भारतीय चिंतन व दर्शन को स्वीकार करना होगा । नए शब्दों की जानकारी प्राप्त करनी होगी । प्राचीन व नवीनतम ज्ञान का समन्वय करते हुए नई पीढ़ी के सामने रखना होगा । कला समन्वय, एक्सपीरियंशियल लर्निंग, क्रिटिकल और क्रिएटिव थिंकिंग जैसे विषयों पर चिंतन करना होगा । बालक को उसकी क्षमताओं की अनुभूति करवाना, प्रतिभा के आधार पर विषय चयन करवाना, लक्ष्य बनवाना आदि । इसके लिए बालक के अंतरतम में बैठने का कार्य आचार्य का है।

‘तनाव प्रबंधन’ पर उन्होंने बताया कि तनाव मन की स्थिति से उत्पन्न एक विकार है ।इसका मूल कारण निराशा, हताशा,अवसाद आदि है ।

तनाव समय वह आर्थिक प्रबंधन की कमी, गलत निर्णय, लंबी बीमारी,अकेलेपन, दुविधा और निर्णय और अस्पष्टता के कारण होता है  । आधुनिक परंपराएं व्यक्तिकरण, सामाजिक बदलाव स्वीकार न करना, परिवर्तन के लिए स्वीकार्यता का ना होना, तकनीकी ज्ञान बदलने से भी तनाव पैदा हो रहा है । लोगों कीदूसरों  और स्वयं से उम्मीदें भी तनाव का कारण है । अहंकार भी तनाव में आवश्यक भूमिका निभाता है । तनाव के कारण अनेक प्रकार की बीमारियां, कार्य क्षमता का कम होना, परस्पर संबंधों का खराब होना, पारिवारिक विघटन जैसी अनेक बातें सामने आती हैं ।  तनाव को कम करने के लिए सबके साथ समन्वय व सहयोग, सबके प्रति अपनापन, क्षमताओं के विकास के लिए प्रयास करना, व्यायाम करना, दायित्व लेकर काम करना, मन के साथ बुद्धि के विकास पर ध्यान देना, स्वाध्याय,मौलिक धरातल पर अध्ययन, वर्तमान को स्वीकार करना,गीता का अध्ययन करना, अपने अपने व्यवसाय व अपनी स्थिति व परिस्थिति का अध्यन करना, घरेलू बजट बनाना,समय प्रबंधन करना, परिवर्तन को जीवनशैली का हिस्सा बनाना,नई बातों को स्वीकार करना,  मूल चिंतन जैसे भारतीय दर्शन, मनोविज्ञान, संस्कृति, ईश्वर पर विश्वास इत्यादि से तनाव दूर किया जा सकता है । पद, विषय-विशेष, व्यवसाय,क्षेत्र विशेष, धन, इत्यादि से अहंकार आता है । परंतु गुणवत्ता, विनम्रता व सेवा से इसे काटा जा सकता है ।

श्री बालकिशन जी-सह संगठन मंत्री विद्या भारती उत्तर क्षेत्र ने अभिभावक शिक्षा पर प्रकाश डालते हुए कहा कि बदलते हुए समय में अभिभावक के प्रबोधन की महती आवश्यकता है । उन्हें स्वास्थ्य जागरूकता, मन को स्वस्थ रखने के लिए प्रबोधन करने की आवश्यकता है । संगीत, ध्यान, सकारात्मक चिंतन व चर्चा से मन को ठीक किया जा सकता है । तार्किक प्रश्नों के निर्माण के लिए विद्यार्थियों को प्रोत्साहित करते हुए बुद्धि व विवेक शीलता लाई जा सकती है । कथा कहानी, सत्संग, सेवा आदि के द्वारा आनंदमय कोश का विकास किया जा सकता है । सामाजिक शिक्षा, सदाचरण मोबाइल व इंटरनेट का विवेकपूर्ण उपयोग, घर की दिनचर्या, समरसता इत्यादि पर अभिभावकों को प्रबोधित करने की आवश्यकता है । अभिभावकों को सम्मेलन, गोष्ठियों और संपर्क के माध्यम से अवगत करवाया जा सकता है । दादा-दादी सम्मेलन ,कक्षाश: गोष्ठियां इसके लिए बड़ी प्रभावी देखी गई हैं । वेदनशील क्षेत्र के समाज का भी प्रबोधनन करने की आवश्यकता है । परिवार समाज की सबसे छोटी संस्था है ,जहां से बालक का विकास आरंभ होता है । अतः परिवार प्रबोधन पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है  । ग्राम विकास, पर्यावरण, सांस्कृतिक पर्वों का महत्व, जल संरक्षण, गीता- गंगा आदि के वैज्ञानिक महत्व पर भी प्रबोधन किया जाना चाहिए । यह प्रबोधन वर्ग प्रान्त के सभी संकुलों (9 संकुल) में आयोजित किया गया इस प्रबोधन वर्ग में कुल 1068 प्रतिभागियों ने भाग लिया

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